चरित्र की प्राणशक्ति है ‘सत्याचरण’ | Truth-The life force of character | Sudhanshu Ji Maharaj

चरित्र की प्राणशक्ति है ‘सत्याचरण’ | Truth-The life force of character | Sudhanshu Ji Maharaj

Truth-The life force of character

सत्य ही धर्म, तप, योग और सनातन ब्रह्म

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।। (यजुर्वेद 19/30)

व्रत धारण करने से मनुष्य को श्रेष्ठ अधिकार व योग्यता की प्राप्ति होती है इससे मनुष्यों का आदर, सत्कार बढ़ जाता है। सम्मान प्राप्त होने से सत्य कर्मों के प्रति श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न होता है। संसार में सभी विद्वानों, विचारकों, संतों, महात्माओं ने सत्य की अपार महिमा का बखान किया है। सत्य ही धर्म, तप, योग और सनातन ब्रह्म है। सत्याचरण ही उत्कृष्ट यज्ञ है। सारा संसार सत्य पर आधारित है, धर्म भी सत्य पर प्रतिष्ठित है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक शैक्षणिक किसी भी क्षेत्र में सत्याचरण के बिना प्रगति संभव नहीं है। सत्य की मृदुता ऐसी है कि आंख की पुतली पर घिसने से भी वह चुभता नहीं, पर कठोरता ऐसी है कि पहाड़ फाउ़कर भी वह बाहर आ जाता है।

सत्यमेव जयते

सत्य की ही सर्वत्र विजय होती है, ‘सत्यमेव जयते’ सत्य माने सर्वशक्तिमान परमात्मा। सत्याचरण से परम सत्य रूप परमात्मा प्राप्त होता है। संसार की समस्त शक्ति का केंद्र यदि प्राप्त करना हो तो हमें सत्य का आसरा लेना होगा, सत्य की उपासना करनी होगी, उग्र तपस्या करनी होगी और सब तुच्छ बातों का त्याग करना होगा। सत्य को जानने, समझने और पाने की जब ललक होती है, मन में व्याकुलता होती है, तभी सत्य की प्राप्ति होती है। सत्य को पोन के लिए व्रत, दीक्षा, दक्षिणा और श्रद्धा के चार सोपानों को पार करना होता है।

व्रत क्या है?

व्रत क्या है? अवगुणों को छोड़कर गुणों को धारण करने का नाम व्रत है। पाप से निवृत्त होकर सद्गुणों को धारण करना ही उपवास है। भूखे रहकर शरीर को सुखोन का नमा उपवास नहीं है। व्रत का अर्थ है ऐसे आचार, विचार, व्यवहार तथा शुभ संकल्प जिन्हें अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र, उच्च और महान बनाने के लिए स्वीकार किया जाए। हमें चाहिए कि हम दुव्यसनों को त्यागकर सदाचारी बनने का व्रत लें। परोपकार का व्रत लें। देश सेवा का व्रत लें। इस प्रकार के सच्चे व्रतों को जीवन में धारण करने से जीवन उन्नत होगा।

दीक्षा का पात्र बनना

इस प्रकार व्रतों को जानने और यथाशक्ति पालन करने की प्रवत्ति हमें शीघ्र ही दीक्षा का पात्र बना देगी। दीक्षित हो जाना मानों सत्य के साम्राज्य में घुसने का प्रवेशपत्र पा लेना और सत्य के दरबार में पहुंचने का अधिकारी हो जाना। सत्य के वातावरण में सत्यप्रेमी साथियों के साथ रहने से सत्य की खोज में और तदानुसार उस पर आचरण करने में सहजता हो जाती हैं सहयोगियों के अनुभव का लाभ भी मिलता है।

चरित्र की प्राणशक्ति है ‘सत्याचरण’

दीक्षा से आगे फिर दक्षिणा है। सत्य के पालन से यह बात हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं कि हमारा आत्मबल बढ़ रहा है, तेज व ओज बढ़ रहा है, हम उन्नति के पथ पर बढ़ रहे हैं। समाज भी हमारी दक्षता और प्रगति को स्वीकार करते हुए प्रतिष्ठा की दक्षिणा दे रहा है। हमारी यह चहुमुखी प्रगति ही दक्षिणा है।

व्रत, दीक्षा व दक्षिणा के प्रभाव से सत्य के प्रति अटूट श्रद्धा जागरण होता है। फिर तो तीव्र गति से प्रगति होती हैं। सत्याचरण ही हमारे चरित्र की प्राण शकित है।

1 Comment

  1. Rajesh Kumar Mishra says:

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