गुरु संगत में रहने का सौभाग्य तलाशें | Sudhanshu Ji Maharaj

गुरु संगत में रहने का सौभाग्य तलाशें | Sudhanshu Ji Maharaj

गुरु संगत में रहने का सौभाग्य तलाशें

संसार सागर में अंधेरे और उजाले दोनों हैं। यह जरूरी नहीं कि जो आप अपने इन बाहर के खुले हुए नेत्रें से देख रहे हैं, जो दृश्य साफ-साफ दिखाई दे रहा है वह सत्य का ही उजाला हो। उस चमकते हुए उजाले की परत के पीछे छिपा हुआ घना अंधकार भी हो सकता है। इस मानव देह में एक तीसरा ज्ञान चक्षु भी होता है, जिसके द्वारा अंधेरों और उजालों का अन्तर समझ आता है। पर यह तभी सम्भव है, जब सदगुरु की कृपा होती है। वह अन्तर्चक्षु तभी टुलता है जब गुरु कृपा करता है।

वास्तविकता का ज्ञान

वैसे तो गुरु सबके ऊपर ही अनवरत अपनी कृपा बरसाते हैं, लेकिन जो शिष्य गुरुकृपा पाने के योग्य होता है, गुरु महिमा के महत्व को भलीभांति समझता है, दिव्य नेत्र उसी का प्रभावी होता है। इस चक्षु के खुलने से शिष्य के जीवन में प्रभात का उदय होता है। दिव्य नेत्र की जरूरत इसलिए होती है, क्योंकि सद्गुरु अपने शिष्य को बाहर से नहीं अन्दर से जोड़ कर रखना चाहते हैं। अन्दर के प्रकाश से बाहर की वास्तविकता समझ आती है। गुरुकृपा से शिष्य का ज्ञान चक्षु खुल जाता है, तब शिष्य राह में ठोकर बनकर पड़े हुए पत्थर को भी अपनी मंजिल की सीढ़ी बना लेता है। दुःख  और मुसीबतों के अंधेरों में भी उसे सन्मार्ग दिखता।

सन्मार्ग पथ प्रदर्शक है सद्गुरु

दुःख और मुसीबतों, अंधेरों में जो सन्मार्ग दिखाता है, वही सद्गुरु है। जो संतापों से तपते हुए मनों में शान्ति और शीतलता के मेघ बनकर बरसता है, वही सद्गुरु है। सद्गुरु शिष्य के अन्दर कलाएं विकसित करता है। उसकी सुप्त शक्तियों  को जागृत करता है। इस भारत भूमि पर असंख्यों शिष्यों ने इसी तरह अपनी आत्मा को ऊंचाइयां दी हैं।

भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र की कृपा संगति से, श्रीकृष्ण ने संदीपन, वीर हनुमान, अर्जुन, कबीर, रामानुजाचार्य, शंकराचार्य, माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, स्वामी दयानन्द सरस्वती, वीर शिवाजी, स्वामी विवेकानन्द, लहड़ी महाशय से लेकर असंख्य गुरुसंगत कृपा से आत्म जागरण के उदाहरण भरे पडे हैं। तब शिष्य को अपने गुरु के मुख से निकले सामान्य से सामान्य शब्द भी साक्षात ब्रह्ममय अनुभव होने लगते हैं।

करिष्ये बचनं तव का संकल्प शिष्य के अंतःकरण में इससे पहले जग भी नहीं सकता।  जब जब किसी शिष्य के अंतःकरण से अपने गुरु के प्रति यह संकल्प उठा है, तो इस धरा का कायकल्प व पूर्ण रूपांतरण ही हुआ है। संस्कृतियों ने करवट ली है।

नये सूरज का  उदय

शिष्य के जीवन में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्रकृति और संस्कृतियां आमूलचूल बदलने को मजबूर हुई हैं। जो धरा पर नये सूरज के उदय जैसा है। इसीलिए हमारी संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। गुरु गीता में स्वयं भगवान् शिव भी यही कहते हैं-

गुकारश्चान्धकारः स्याद्रुकारस्तेज उच्यते। अज्ञाननाशकं ब्रह्म गुरुदेव न संशयः।।

गुकारो प्रथमो वर्णो मायादिगुणभासकः। रुकारो द्वितीयो वर्णो मायाभ्रान्ति विमोचकः।।

इसीलिए आत्मज्योति को जागृत करने वाले, परमात्मा के प्रकाश से जोड़ने वाले सद्गुरु और उनके गुरुमंत्र, ध्यान, साधना विधियों का आदर हर युग में होता रहा है। हर युग में नवनिर्माण के लिए समर्थ शिष्य गढ़े जाते रहे। आप भी अपने जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग करते हुए आनन्द, भक्ति, शांति के साथ गुरु संगत में रहने का सौभाग्य तलाशें, जीवन को धन्य बनायें।

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