अनन्त काल पूर्व भारत गणतंत्रीय राष्ट्र के साथ ही प्रकट हुआ

अनन्त काल पूर्व भारत गणतंत्रीय राष्ट्र के साथ ही प्रकट हुआ

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अनन्त काल पूर्व भारत गणतंत्रीय राष्ट्र के साथ ही प्रकट हुआ

भारत गणतंत्रीय राष्ट्र है, यहां गणों का शासन है, पर यह शासन व्यवस्था अंग्रेजो  की देन नहीं है, अपितु अनन्त काल पूर्व भारत गणतंत्रीय राष्ट्र के साथ ही प्रकट हुआ।

अनन्त काल पूर्व भारत गणतंत्रीय राष्ट्र के साथ ही प्रकट हुआ।

आ ब्रह्मण ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे

राजन्य: शूरदूयवियो तिव्याधी महारथेजायतान,

दोघ्रीघेनुर्वोढा नढवानासु: साप्ति:…….”

“उक्त मंत्र में ऋषिराष्ट्र की उन्नति की कामना के साथ स्पष्ट किया गया है कि हमारे देश में गायें दुधारू हों, बैल कृषि कार्य करने में निपुण हों, राजा शूरवीर हों, औषधियां-वनस्पतियां, आरोग्यवर्धक हों और वर्षा प्राणदायी हो, पेड़-पौधे पुष्टवर्धक फल दायी हों । जनमानस परस्पर एक दूसरे से प्रेम करे, राष्ट्र अतिवृष्टि-अनावृष्टि से मुक्त हो आदि अपेक्षाओं के साथ गणतंत्रीय राष्ट्र की परिकल्पना की गयी है।”

वास्तव में प्राचीन भारतीय इतिहास का गणतंत्र बहुत ही सुख-समृद्धि से व्यापक था। ध्यान से देखें तो राष्ट्रीय गणतंत्र का ही लघु स्वरूप हमें ‘परिवार व्यवस्था’ में देखने को मिलता है। शिव परिवार इस का आदर्श स्वरूप है। जिसमें पति-पत्नी, संतान के साथ माँ गंगा, सर्प, नंदी का समुच्चय है। राजनीतिक विश्लेषण कहते हैं प्राचीन भारतीय गणतंत्र में आज की तरह मात्र सिर गणना द्वारा संचालित शासन व्यवस्था नहीं थी, अपितु देश के सभी नागरिक सद्‌गुण युक्त होने व परस्पर राष्ट्रप्रेम प्रवाहित होने के अतिरिक्त समस्त नागरिक एक दूसरे के साथ स्नेह-प्रेम तो करे ही, साथ ही देश के नागरिकों की पूर्णता में सहायक थे। वनस्पति जगत गाय आदि प्राणिजगत, गंगा आदि जलवायु जगत के पोषक युक्त नागरिक होने के कारण ही गणतंत्र को शक्तिवान माना जाता था। पर राष्ट्र का यह स्वरूप तभी तक सम्भव व सफल बना रहा, जब तक देश के जनमानस में आध्यात्मिक  वृत्तियां प्रतिष्ठित थीं। तब ऐसा ही था अध्यात्म अर्थात सद्‌गुणों की प्रतिस्थापना। क्योंकि सद्‌गुण-शील व्यक्ति ही राष्ट्र निर्माण में सहायक समस्त संसाधनों को पुष्ट, पवित्र, आरोग्यवर्धक रख सकता है। दूसरे शब्द शब्दों में इसे राष्ट्र का आध्यात्मिकरण कह सकते हैं।

आध्यात्मिक मूल्यों का रोपण :

वास्तव में ऋषियों ने भारतीय गणतंत्र के मूल में अध्यात्म की प्रतिष्ठा को ही महत्व दिया है। इसीलिए भारतीय गणतंत्र को विश्व भर के गणतंत्रीय शासन व्यवस्था से अलग व उत्कृष्ट माना जाता था। ऐसा गणतंत्र जिसमें मनुष्य के साथ सम्पूर्ण जड़-चेतन का मर्यादित समन्वय किया गया था। यही भारत का आध्यात्मिकरण है। बाह्‌य धार्मिक आडम्बरों से मुक्त थी तब की गणतंत्रीय व्यवस्था। धर्मजीवन मूल्यों को बनाने के माध्यम थे। प्रकृति के विकट ले जाने वाले स्रोत वास्तव में तब ऐसा भारत अध्यात्म का ही पर्याय बना रहा है।

अध्यात्म कोई विचारधारा नहीं है, यह तो आत्मा का सत्य है। सत्यता का मतलब है ‘सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तुं’ सभी दिशाएं मेरी मित्र हों, सभी से सत्प्रेम हो। सत्प्रेम का अर्थ है- दूसरे के सुख से सुखी, दूसरे के दु:ख से दु:खी होना| इसी दृष्टि का सुदृढ़ आधार है अध्यात्म। जब कोई भेद की दीवार न हो, जब तू, तू न हो। मैं, मैं नहीं रहूं, मैं तू हो जाए और तू मैं हो जाए। यही वैदिक ऋषियों का सर्वात्मभाव है। भारत की सम्पूर्ण सद्‌वृत्तियां इसी सर्वात्मभाव के बोध से ओत-प्रोत थीं। संसार के अन्य देशों में भारतवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर उसकी इसी बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति के कारण था और वह भारत विश्व गुरु के पद पर सम्मानित था।

आज भी यहां की भूमि में वह सात्विक उर्वरा शक्ति है, जिससे संत तुकाराम, आदि गुरु शंकराचार्य, माधवाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ जी, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, दयानंद, महात्मा बुद्ध आदि जैसी दिव्य आत्माओं का प्रादुर्भाव होता है। यहां नेता बनाये नहीं जाते थे, अपितु प्रकृति स्वत: नेतृत्व उत्पन्न करती थी। वैसे भी किसी आध्यात्मिक नेतृत्व को संख्या में समेटा नहीं जा सकता, क्योंकि वह मूल्यों से संचालित होता है।

ऋषि मूल्यों के साथ-साथ अट्ठारह पुराण, छ: शास्त्र, चार वेद, धर्मशास्त्र, वेदान्त, आदि भारत की आध्यात्मिकता के स्त्रोत हैं। जिनका अध्ययन आज भी कण-कण में परमसत्ता की व्यापकता सिद्ध करता है। सर्वे भवन्तु सुखिनः: द्वारा जहां किसी भी प्राणी को दु:ख न पहुंचाने की प्रेरणाएं देना, जहां के हर नागरिक का भाव। स्वयं के लिए दूसरे के द्वारा किया गया ऐसा व्यवहार तो खुद को प्रिय न हो, वह दूसरों के प्रति कभी नहीं करना चाहिए। यह वास्तविक गणतंत्र का स्वरूप है।

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्‌।

आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्‌।।

यही भारत की मूल आत्मा भी है, यही आत्म प्रेरित तंत्र गणतंत्र है। कहते हैं कि राष्ट्र के लिए किसी को अध्यक्ष तो हम बना सकते हैं, पर उसमें गणतंत्रीय वृत्ति कैसे जगेगी। इसके लिए तो जीवनरूपी आध्यात्मिक नगरी का आपको राजा बनना होगा। प्रश्न उठता है। यह आध्यात्मिक नगरी क्या है? ऐसा हम क्या करें कि जिससे हम इस गणतंत्र के स्वामी बन सकें? चूंकि यह एक आध्यात्मिक दौलत है, अत: इसको पाने का ढंग क्या है ?

करुणाप्रद हृदय में जगता है गणत्त्व:

उत्थान एवं उद्धार के लिए जीवन को उंचा उठाने की धारा ही अध्यात्म की पहली सीढ़ी है, और इससे आगे की हमारी आध्यात्मिक यात्रा होगी, जब हमारे जीवन का वैर-भाव छूटेगा, मित्रता ढ़ेगी तथा शत्रुता का दायरा घटेगा। जब हमारे अन्दर सहानुभूति जागृत होगी। सहानुभूति से सहयोग, सहयोग से सेवाएं शुरु होंगी, यही माध्यम हमें आध्यात्मिक इन्सान बनने का सुअवसर देगा। इसी क्रम में यदि दुकान, मकान, धन, वैभव या सत्ता में, कुर्सी या कोठी जिस किसी के प्रति आसक्ति बसा ली तो साधारण-सा गण तक कभी नहीं बन सकते, गणतंत्र तो बहुत दूर है।

आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य ने हर क्षेत्र में उन्नति की है, पर किसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा कुछ घटा है, तो वह अवनति आध्यात्मिकता की है। आध्यात्मिक न हो पाने के कारण वह कट्‌टर तो बना है, पर इंसान के अन्दर से दयालुता लुप्त हो चुकी है, परिणामत: ऐसा व्यक्ति निर्दयी बनकर दुनिया को आतंकित करता है। ऐसे में स्पष्ट कह सकते हैं कि जिस में दूसरों को रोता हुआ देखकर अगर मन में दया के भाव न आए तो मानकर चलें की वह गणतंत्र के योग्य नहीं है।

दयालुता का असली रूप है-दूसरों की पीड़ा और दर्द अन्तरात्मा से महसूस करना। दयालु उनको कहते हैं जो दूसरों के हित के लिए स्वयं की आहुति देने से नहीं चूकते। अपने व्यवहार में दयार्द्रता का समावेश करना दयालुता का ही रूप है अर्थात्‌ हृदय दया से गीला रहे। यहीं से गणतंत्र जीवन में जगता है।

यदि पढ़े-लिखे होने के बाद भी हम रात-दिन ईर्ष्या, द्वेष, कट्‌टरता आदि भाव दूसरों के प्रति रखते हैं। तो हम गणतंत्र नहीं बना सकते। जिस प्रकार परमात्मा की भक्ति करनी है, तो परमात्मा के साथ मित्रता कायम करना जरूरी है, इसीलिए अपनी आत्मा को कलुषित किए बिना, नित्य राष्ट्र-भगवान के साथ संबंध जोड़ने की कोशिश कीजिए।

पाश्चात्य देशों पर दृष्टि डालें तो भौतिकता को ही सर्वोपरि मानकर अर्थोपार्जन किया जा रहा है, जिसका दूरगामी परिणाम हितकर नहीं है। वास्तव में जहां की संस्कृति में कोई त्यागभाव नहीं, जहां पुरुष-स्त्री को एवं स्त्री-पुरुष को अपनी कामेच्छाओं की पूर्ति का एक यन्त्र मानते हों, जहां पति-पत्नी में कोई प्रेम नहीं, जहां पिता-पुत्र में कोई आत्मीयता नहीं, जहां केवल देह अमरत्व उद्देश्य हो, जहां मनमानेपन की स्वतन्त्रता हो, जहां धर्म दूर-दूर तक नहीं है, जहां आत्मोन्नति के लिए कोई संस्कार नहीं, वहां का किया गया अनुकरण हम आपके लिए कितना अहितकर होगा, इस पर स्वयं विचार करना चाहिए। ये वृत्तियां कैसे गणतंत्र स्थापित करेंगी।

कल्याणकारी परमात्मा राष्ट्र का उपासक बने, उसका भजन करने में संकोच न करे, जों इन गुणों को अपनाता है, उस व्यत्ति के जीवन में सदैव खुशहाली रहती है। आप सबका जीवन आनन्द में परिपूर्ण हो, खुशियां हों, आनन्द हो, शान्ति हो, प्रसन्नता हो। जिससे यह समाज-परिवार सुखी आनंदित एवं परमात्मा मय लगे। इस गणतंत्र दिवस पर ईश्वर से हमारी प्रार्थना है।

1 Comment

  1. Avinash pd Singh. says:

    Very impressive lecture for new jenration. Gurudev, Vaishali Nagar (Bihar)is the first repagalic of would.

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