वानप्रस्थ परम्परा वाले नववृद्धाश्रमों की जरूरत | Sudhanshu Ji Maharaj

वानप्रस्थ परम्परा वाले नववृद्धाश्रमों की जरूरत | Sudhanshu Ji Maharaj

वानप्रस्थ परम्परा वाले नववृद्धाश्रमों की जरूरत

विदेशों की तरह आज देश के अधिकांश शहरों में वृद्धाश्रमों की स्थापनायें भले हो रही हैं, परन्तु भारत भावनाशील देश है। अतः इस देश में कोई भी वृद्धाश्रम आध्यात्मिक भाव के बिना सफल होना कठिन हो रहा है। हमारे समाज द्वारा प्रौढ़ावस्था के राहत केन्द्र रूप में स्थापित हो रहे इन वृद्धाश्रमों को स्वीकार न कर पाने के पीछे भावनात्मक कारण है। वैसे भी इस देश की प्राचीनतम सांस्कृतिक परम्परा के बल पर ही बुजुर्ग व बच्चे दोनों परस्पर मिलजुलकर संस्कारगत मूल्यों पर आधारित जीवन जीना चाहते हैं।

वैसे भी कहते हैं ‘‘जो लग वह सग’’ अर्थात् जो जितना निकट रहता है, उसके प्रति उतना ही अधिक अपनत्व पैदा होता है। भारत की परिवार व्यवस्था इसका पर्याय है। यहां हर माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक लगाव अनुभव करते हैं, उसके पीछे है बचपन से लेकर युवा अवस्था तक अपनी संतानों के साथ रहना। वास्तव में भारत में हर माता-पिता अपने बच्चों के जन्म से लेकर लगभग 26 वर्ष तक संतानों के दायित्व के प्रति समर्पित होकर उनको आत्मावलम्बी-स्वावलम्बी बनाने में लगा देते हैं।

इस जिम्मेदारी भरी आत्मीयता से माता-पिता का अपनी संतानों से अधिक लगाव होना स्वाभाविक है। संतान का भी माता-पिता से गहरा लगाव रहता है। अपने माता-पिता को आदर-सम्मान देना, उनकी कठिन परिस्थितियों में अपने दायित्वों कर्तव्यों को पूरा करना आदि भावों के चलते बच्चों में भी अपने बुजुर्गों को दूर वृद्धाश्रम भेजने की इच्छा कम ही रहती है।

इसीलिए हमारे ऋषियों ने बड़ी दूरदर्शिता से जीवन के चार आश्रमों की व्यवस्था की थी। जिससे जीवन के तीसरे पन में व्यक्ति स्वयं के घर व किसी सद्गुरु के आश्रम में रहकर अब तक के जीवन की जटिल मान्यताओं को साधना द्वारा ढीला करे, अपने परिवार पर पकड़ ढीली करे और धीरे-धीरे आत्म शोधन-आत्म परिष्कार के साथ अपने निज स्वभाव में वापस आये। इसी को वानप्रस्थ आश्रम कहा गया। वास्तव में हमारे यहां वृद्धाश्रम की जगह वानप्रस्थ की अवधारणा है। आज जरूरत इसी वानप्रस्थ आश्रम जगाने की है। वृद्धाश्रम की अपेक्षा वानप्रस्थ परम्परा बुजुर्गों को अपने बच्चों के साथ संतोषपूर्वक रहते हुए, बुजुर्ग जिस समाज, मित्र व रिश्तेदार के साथ जीवन जीते आये हैं, उन्हें अपनाते हुए जीवन लक्ष्य पाने का पक्षधर हैं। वृद्धाश्रम की तरह वानप्रस्थ परम्परा में घर छोड़ने की अनिवार्यता नहीं है।

अतः वानप्रस्थ परम्परा ही बुजुर्गों के लिए नयी आवश्यकताओं के अनुरूप कारगर साबित हो सकते हैं। दूसरी ओर देश में वृद्धाश्रम भी संस्कारगत व्यवस्थाओं को अपनाने से ही सफल होंगे। जिसमें बुजुर्गों को आश्रम जैसा वानप्रस्थी बनने का सौभाग्य मिल सके।

हमारे ऋषियों द्वारा वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम का मानक दूरदर्शितापरक बनाया गया था, जो वृद्धाश्रम से बिल्कुल अलग है। यह जीवन की एक आदर्श परम्परा थी। जिसमें व्यक्ति मानव जीवन के शाश्वत उद्देश्य जैसे बुनियादी स्तर पर जीवन निर्वहन के साथ आत्म परिष्कार के लिए जप, साधना-ध्यान से भरा भावनात्मक सुकून भी अनुभव करता है। इसीलिए लाख वर्तमान वृद्धाश्रम में सुविधायें हों, पर कोई विशेष परिस्थिति न आये, तो अपने देश में कोई बुजुर्ग वृद्धाश्रम जाना नहीं पसंद करता। यहां तक कि उसके प्रति ममत्व के कारण परिवार में अपनी उपेक्षा होते हुए भी वह वृद्धाश्रम को उचित जगह नहीं मानता और यह जानते हुए कि परिवार पर वह बोझ है, फिर भी पुत्रबधु, पौत्र-पौत्री से दूर वृद्धाश्रम में जाकर रहना नहीं चाहता। उसकी इच्छा यही रहती है कि थोड़ा सा परस्पर मनोभावों में अनुकूलता आ जाये, तो अपने घर में ही रहना ज्यादा अच्छा है। साथ ही बुजुर्गों की दूसरी प्राथमिकता रहती है कि यदि उन्हें कहीं घर से दूर रहना ही पड़े, तो वे आश्रम जैसे वातावरण को स्वीकार करें, जहां वानप्रस्थी बनकर रह सकें।

अतः जरूरत है ऐसे वृद्धाश्रम की जो सभी  सुविधाओं से जुड़े होने के साथ आध्यात्मिक व धर्म सम्वेदन भाव वाले भी हों। जहां नियमित सत्संग, ध्यान, जप, देव आराधना, सेवा-सहकारिता की गतिविधियां चल रही हों। जहां गुरुत्व से ओतप्रोत एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व मार्गदर्शक रूप में बैठा हो, जो जीवन के पार जीवन होने का भाव जगा सके। ऐसा वृद्धाश्रम जो निवास स्थान के रूप में ही न रहे, जहां असहाय, अशक्त, निर्बल अथवा परिवार से विरक्त हो चुके वृद्धों को आश्रय तो मिले, अपितु वह भारतीय ऋषियों द्वारा अनुसंधित वानप्रस्थ आश्रम जैसा हो। वैसे यदि परिवार के बीच ही बुजुर्ग व नई पीढ़ी दोनों में सामंजस्य बैठ सके, तो उन्हें वृद्धाश्रम की जरूरत ही नहीं अनुभव होगी। बस सामन्जस्य के वे बिन्दु ही बहुत हैं, जिसमें उसे नई पीढ़ी के व्यवहारजन्य मूल्यों व नई परिस्थितियों को देखकर अपने को आहत न होना पड़े।

कुछ तुम बदलो, कुछ हमः

जरूरत यह भी है कि परिवार में रहते हुए बुजुर्ग अपने में भी बदलाव लायें। सिर्फ अपने बर्चस्व, अपने मान-सम्मान को ही अपना अधिकार न समझें, अपितु जीवन की इस तीसरी वेला में वाणी की मधुरता, छोटे बच्चों के लिए प्यार-दुलार बढ़ायें। मनोभावों को व्यावहारिक सद्चिंतन, सद्गुणों से सींचे, जप-उपासना, आत्म परिष्कार में लगें।

बुजुर्गगण ज्यों-ज्यों आयु बढ़े अपनी भावनाओं में मधुरता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, श्रद्धा-समर्पण, गुरुसेवा के भाव लायें। अनेक प्रकार की भावनात्मक-मानसिक, शारीरिक परेशानियों के बावजूद जीने की आशा न छोड़ें। गम्भीर बीमारी में भी मनोबल बनाये रखें। अपनी संतानों व युवावर्ग को लेकर परम्परागत रूढ़ियों, जीर्ण मान्यताओं से मुक्त होकर रहें। बच्चों की स्वतंत्र जीवन जीने की चाहत वाली सोच से आहत न हों। नई पीढ़ी को नए जमाने और नये मूल्यों के लिए दोषी न माने, अन्यथा वे पुरानी पीढ़ी से दूरियां बनाने लगते हैं और सामंजस्य टूटता है।

नई पीढ़ी जिस आधुनिक वातावरण में पैदा हुई है, वे इस नए जमाने के अनुसार ही रहना पसंद करें, जैसे कभी वे रहते थे। अतः समझदारी के साथ अपनी सोच में यथाशक्ति परिवर्तन लायें। इससे नयी पीढ़ी से सामंजस्य बना पाने में सुविधा होगी और घर में ही बुजुर्गों का सम्मान बढ़ेगा। बुजुर्गों का शेष जीवन हंसते-मुस्कुराते सहजता से व्यतीत हो सकेगा। ये कुछ ऐसे पक्ष हैं जिनका ध्यान रखकर हर बुजुर्ग घर में नई पीढ़ी के साथ अनुकुलता बनाने में सहूलियत अनुभव करेंगे और वृद्धाश्रम की उन्हें आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

3 Comments

  1. Suresh Sharma says:

    Oum Guruwe Namah

  2. Rabindra Kumar Sinha says:

    वानप्रस्थ , अध्यात्म आदि सुविधा से लैस वृध्दाश्रमों में वृद्ध अनुभवों का समाज कल्याण हेतु , वृद्ध के अनुभवों की सदुपयोग भी विचारार्थ है।

  3. Suniln says:

    Very beautiful message to India by Maharaja Shri.

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