धर्मादा सेवा के उपासक संत बाबा गाडगे जी महाराज | Sudhanshu Ji Maharaj

धर्मादा सेवा के उपासक संत बाबा गाडगे जी महाराज | Sudhanshu Ji Maharaj

धर्मादा सेवा के उपासक संत बाबा गाडगे जी महाराज

गरीबी में रहकर भी सेवा की धुन

महाराष्ट्र में दुखियों-पीड़ितों की सेवा के प्रतीक बनकर उभरे संत गाडगे बाबा। वे सबकुछ छोड़कर मानव कल्याण में समर्पित रहे। रास्ते को टेकने के लिए प्रयोग होने वाली एक लकड़ी, फटी-पुरानी चादर और मिट्टी का एक बर्तन यही इस संत के जीवन की कुल जमा भौतिक पूंजी थी, वह बर्तन भी भोजन करने के बाद यूं ही नहीं पड़ा रहता, अपितु बाबा उसी से ढपली बजाकर लोकजागरण का काम लेते थे। पैरो में फटी चप्पल, सिर पर मिट्टी का कटोरा, छाड़ू और पैदल यात्र उनकी पहचान थी। मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र अपने पास रखने के कारण लोग उन्हें गाडगे महाराज कहने लगे। उनकी गरीबी, फकीरी, अभाव पूर्ण दिखने वाले जीवन क्रम के कारण लोग उन्हें गाडगेबाबा, चीथड़े-गोदड़े वाले बाबा जैसे नामों से पुकारते थे। इस प्रकार गरीबी में रहकर भी अपनी सेवा की धुन के कारण वे संत की असली छवि समाज के बीच स्थापित करने में सफल हुए। उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चों को भी जीवन भर सेवा की राह पर चलने की प्रेरणा देते रहे।

अपने लिए कठोरता और दूसरों के लिए उदारता का मंत्र

जानकर आश्चर्य होगा कि अपने लिए कठोरता और दूसरों के लिए उदारता उनके जीवन की परिभाषा थी, दूसरों की पीड़ा को कैसे दूर करें, यही उनकी जीवन भर धुन रही। पीड़ित मानवता के दुख दर्द को दूर करने की भावना के साथ गाडगे बाबा ने महाराष्ट्र के अनेक भागों में बड़ी संख्या में धर्मशालाएं, गौशालाएं, विद्यालय, चिकित्सालय, गरीबों के लिए जगह-जगह छात्रवासों की स्थापनायें कीं। पर गाडगे जी की लोक कल्याणकारी भावना इतनी गहरी थी, कि उन्होंने अपने लिए एक कुटिया तक न बनाई और जीवन भर अपने द्वारा भिक्षा से प्राप्त धन से बनवाई गयी धर्मशालाओं के बरामदे व आसपास खडे़ वृक्षों के नीचे सम्पूर्ण जिंदगी गुजार दी।

दान सेवा के लिए हैं, न कि व्यक्तिगत जीवन के लिए

वे कहते कि यह सम्पूर्ण संसार परमात्मा की बगिया है, हमारे मांगने पर लोग जो भी कुछ देते हैं, वह उसी परमात्मा की सेवा के लिए देते हैं, न कि हमारे व्यक्तिगत जीवन के लिए। ऐसे में भगवान के इस धन को यदि रंचमात्र भी अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए लगाता हूं, तो वह चोरी जैसा पापपूर्ण कार्य ही कहा जायेगा। वे कहते कि बरामदें व पेड़ के नीचे सर्दी-गर्मी सहते हुए दिन गुजारने से मुझे परमात्मा की कृपा का अपूर्व सुख मिलता है, जिसे हम किसी भी कीमत में गवाना नहीं चाहते। इसप्रकार अशिक्षित होने के बावजूद पीड़ितों की सेवा गाडगे बाबा की पहचान बनी।

जाति प्रथा और अस्पृश्यता को अधर्म माना

पिता का साया सिर से उठ जाने पर उनका बचपन अपने नानाजी के यहां बीता। उन्होंने फैले अंधविश्वासों, बाह्य आडंबरों, रूढ़ियों, सामाजिक कुरीतियों, दुर्व्यसनों में तबाह होते समाज को नजदीकी से देखा और उसकी घातक हानियों को भलीभांति अनुभव किया। गाडगे बाबा आजीवन सामाजिक अन्यायों के खिलाफ संघर्षरत रहे तथा अपने समाज को भी इसके लिए जागरूक करते रहे। जाति प्रथा और अस्पृश्यता को बाबा सबसे घृणित और अधर्म मानते थे। वे लोगों को अंधभक्ति  व धार्मिक कुप्रथाओं से बचने की सलाह देते और कहते मानव मात्र एक समान हैं, अतः सभी के साथ भाईचारे का व्यवहार करें।

दीन-दुखियों  तथा उपेक्षितों की सेवा संत गाडगेबाबा के जीवन का एकमात्र ध्येय था। धार्मिक आडंबरों के वे मुखर विरोधी थे। उनका विश्वास था कि दरिद्र नारायण के रूप में ईश्वर हर मानव में विद्यमान है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह नर रूपी नारायण भगवान की तन-मन-धन से सेवा करे। भूखों को भोजन, प्यासे को पानी, नंगे को वस्त्र, अनपढ़ को शिक्षा, बेकार को काम और मूक जीवों को अभय प्रदान करना ही भगवान की सच्ची सेवा है। वे धर्म के नाम पर होने वाली पशुबलि तथा नशाखोरी, छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों के प्रबल विरोधी थे।

स्वच्छता प्रेमी

वे किसी गाँव में वहां की गलियों और रास्तों को साफ करते हुए प्रवेश करते थे और स्वच्छता का कार्य पूर्ण होने पर उस गांव के लोगों को अपने कीर्तन के माध्यम से संतों के प्रेरक संदेश देते। उन्होंने कहा शिक्षा के लिए यदि खाने की थाली भी बेचनी पड़े, तो बेचकर शिक्षा ग्रहण करें। संत गाडगे जी महाराज की कीर्तन शैली अपने आप में बेमिसाल थी। वे संतों के वचन सुनाया करते थे। देवीदास डेबुजी झिंगराजि जानोरकर अर्थात गाडगे महाराज भ्रमणशील सामाजिक लोक शिक्षक थे। ऐसे महान संत का जन्म 23 फरवरी, 1876 ई- को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेगाँव नामक ग्राम में माता सखूबाई और पिता झिंगराजि जी की कोख से एक गरीब परिवार में हुआ।

बाबा गाडगे संत कबीर और रैदास (रविदास ) की परंपरा के संत थे। अपने सेवा यज्ञ के बल पर संत गाडगे महाराज भारतीय संत परम्परा में अमर बन गये। ‘संत गाडगे बाबा’ के नाम पर स्थापित अमरावती विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र, भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में जारी डाक टिकट उनके कीर्ति की अनन्तकालीन गाथा प्रस्तुत कर रहा है। आज बाबा गाडगे का शरीर हमारे बीच में नहीं है, लेकिन उनकी धर्मादा सेवायें तथा लोकप्रेरणायें आज भी जन-जन में जीवंतता जगा रहीं हैं। वे मानवमात्र के लिए अनन्तकाल तक प्रेरणा स्त्रोत रहेंगे। ऐसे महापुरुष का उनके जन्मदिवस 23 फरवरी पर शत-शत नमन है।

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