गुरु दीक्षा | अनुशासन की धारा से जोड़ना | Sudhanshu Ji Maharaj

गुरु दीक्षा | अनुशासन की धारा से जोड़ना | Sudhanshu Ji Maharaj

गुरु दीक्षा

आध्यात्मिक बीजारोपण

गुरु दीक्षा गुरु-शिष्य के बीच दैवीय अनुशासन अनुबंधों का बीजारोपड़ है, जिससे जीवन उत्सवमय बनता है। शिष्य का अज्ञानता रूपी अंधकार दूर होता है, ऐसा अंधकार जो व्यक्ति को सीमाबद्ध कर रहा है। दीक्षा द्वारा गुरु अपने प्राण-पुण्य-तप का अंश शिष्य के अंतःकरण में आरोपित करके उसे प्रकाश की ओर ले जाता है, परमात्मा की ओर ले जाता है। इसे परमात्मा के राजकुमार का अपने राजा से मिलन भी कह सकते हैं। मनुष्य परमात्मा का राजकुमार है, इसलिए उसकी सीमाएं एवं शक्तियां भी असीम हैं, लेकिन वह अपनी अज्ञानतावश अपने को शरीर व मनःस्थिति की स्थूलता से बंधकर परमात्मा की ओर के अपने सम्पूर्ण द्वार बंद कर लेता और सामान्य दीन-हीन जिंदगी जीता है। पर जब गुरु ईश्वर की प्रेरणा से शिष्य पर कृपा करता है, तो उसके दिव्य चेतनात्मक द्वार खुल जाते हैं और अपनी सीमित चिंतना से बाहर निकालकर अपनी जिंदगी जीता है।

तब कण-कण में परमात्मा की अभिव्यक्ति होने लगती है। भारतीय संस्कृति में इसीलिए गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी है।

अनुशासन की धारा से जोड़ना

गुरु ही वह आधार है जिसके सहारे शिष्य अपने सीमित आत्म चेतना को विराट चेतना से जोड़ने और उस परमात्मा तक पहुंचने में सहायता प्राप्त करता है। गुरु वह झरोखा है, जिसके माध्यम से शिष्य की आत्मचेतना के  द्वार खुलते हैं। गुरु शिष्य के लिए देवत्वपूर्ण अनुशासित मानचित्र है, जिसके सहारे शिष्य अपने गंतव्य की दिशा खोजता है। आत्मा व संसार के कण-कण से प्रवाहित होते परमात्मा की दिव्य अनुभूति करता है। गुरु ही शिष्य को परमात्मा रूपी मंजिल तक पहुंचाता है। वास्तव में गुरु द्वारा दी गयी दीक्षा से शिष्य के देखने की दृष्टि जोबदल जाती है, शिष्य अपने आत्म अस्तित्व से साक्षात्कार जो कर लेता है।

दूसरे शब्दों में यही गुरु द्वारा शिष्य की ‘आत्म पुकार’ को दिशा देना कहते हैं। इस प्रकार एक ऊर्जा पुंज रूप में गुरु जीवन में आकर साधक व शिष्य की रिक्तता को पूर्णता से भरता है। आत्म विशेषज्ञ कहते हैं-‘‘शिष्य की श्रद्धाभरी अंतः ऊर्जा जिस फ्रिक्वैंसी से गुरुतत्व तक अपनी संवेदना प्रेषित करता है, उसी तीव्रता की फ्रिक्वैंसी से शिष्य के सामने गुरु के किसी साकार स्वरूप को सूक्ष्म जगत ला खड़ा करता है और शिष्य उसी गुरु के झरोखे से अपने परमात्मा के मार्ग पर दौड़ पड़ता है। इस प्रकार शिष्य की आत्मिक गतिशीलता को अनुशासन की धारा से जोड़कर परमात्मा तक पहुंचाना सदियों से सद्गुरुओं पर दायित्व रहा है।

पहली गुरु ‘माँ’ कही गयी है, दूसरा पिता

यद्यपि हर किसी के पीछे कोई न कोई, किसी न किसी रूप में एक गुरु कार्य कर रहा होता है। व्यक्ति के स्थूल जगत में न रहने पर भी उसकी आत्मा को सूक्ष्म रूप से गुरु ही गति एवं दिशा देकर प्रकाशित किये रखता है। आदि शंकराचार्य, आचार्य शंकर का उदाहरण प्रत्यक्ष है, उनके सद्गुरु कई सौ वर्षों तक सूक्ष्म आभा मण्डल से शंकर को वर्षों पकाने के बाद जन्म दिलाया, फिर उन्हें दीक्षित करके अपना दायित्व पूर्ण किया। खास बात माँ की कोख भी गुरु व ईश्वर की प्रेरणा से ही मिलती है, इसीलिए जीवन की पहली गुरु ‘माँ’ कही गयी है, दूसरा पिता। इसके अतिरिक्त लोक व्यवहार को गति अैर दिशा देने में समय-समय पर जिन व्यक्तियों का मार्गदर्शन मिलता है, वे सभी गुरु ही कहलाते है। पर सद्गुरु व्यक्ति के जीवन को आध्यात्मिक दिशा और दृष्टि दोनों देते हैं। जीवन का सम्पूर्ण रूपांतरण सद्गुरु से ही होता है।

कब ‘सद्गुरु’ शिष्य तक खिचता चला आता है?

खासबात कि आध्यात्मिक यात्रा के सद्गुरु को अन्य गुरुओं के समान चयन नहीं करना पड़ता, अपितु ठीक जैसे पूर्व जन्म के संस्कार बस ‘माँ’ की कोख चयनित हो जाती है, वैसे ही साधक के जीवन की आध्यात्मिक वेचैनी, तड़प, आध्यात्मिक व्याकुलता, उसकी परमात्मा को पाने की तीव्र अभीप्सा देखकर ‘सद्गुरु’ शिष्य तक खिचता चला आता है। आदि गुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, वीर शिवाजी आदि असंख्य इसके उदाहरण हैं, जिनके द्वार पर गुरु ने स्वयं दस्तक दी है। आज भी वह परम्परा अनवरत चली आ रही है। क्योंकि सच्चा शिष्य पाने के लिए सद्गुरु भी अहर्निश तड़पता रहता है। वह शिष्य की आत्माज्योति पकने तक प्रतीक्षा करता है। जिस क्षण शिष्य आध्यात्मिक परिपक्वता पहुंचता है कि गुरु दौड़ पड़ता है शिष्य को वरण करने।

दीक्षा प्रक्रिया

दीक्षा प्रक्रिया के संदर्भ में देखें तो गुरु सामान्यतः तीन प्रकार से शिष्य को दीक्षित करता है। प्रथम मंत्र दीक्षा, दूसरी प्राण दीक्षा, तीसरा अग्नि दीक्षा, जिसकी जैसी योग्यता होती है, गुरु उसी स्तर की ऊर्जा शिष्य पर उड़ेलता है।

मंत्र दीक्षा

मंत्रदीक्षा शिष्य के लिए गुरुमुख होने की प्रारम्भिक अवस्था है, जिसमें गुरु अपनी प्राण चेतना को शिष्य की पात्रता के अनुरूप हस्तान्तरित करता है व निर्धारित मंत्र से उसे शिष्य की चेतना में स्थापित करता है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे कोई माली बड़ी ही सावधानीपूर्वक किसी पौध की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए ‘कलम’ लगाता है। इसी को गुरुमुख होना भी कहते हैं। शिष्य गुरुमुख होने के बाद गुरु द्वारा दिये मंत्र को अपने श्रद्धा-समर्पण के अनुसार नियमित जप-उपासना में लाता है। नित्य गुरुमंत्र जप से शिष्य की श्रद्धा एवं आंतरिक पात्रता में सतत विकास होता जाता है, आगे चलकर यही कलम एक दिन विशाल वृक्ष के रूप में फलता-फूलता और सद्गुरु तथा समाज-राष्ट्र सबको गौरवान्वित करता है।

वैसे हर किसी को किसी न किसी मंत्र का जप करते देखा जाता है, पर सद्गुरु के मंत्र की अपनी विशेष महत्ता है। गुरु दीक्षा से प्राप्त मंत्र का जप व साधना शीघ्र फलित होती है। क्योंकि उसमें सद्गुरु अपने प्राण, तप एवं पुण्य का एक अंश देकर साधक की आध्यात्मिक भूमि उर्वर बनाता और शिष्य की चेतना को ऊंचा उठाता है। इसके लिए गुरु के सामने गिड़गिड़ाने की नहीं, अपितु शिष्य को नैष्ठिक होकर साधना श्रद्धा-समर्पण भाव से गुरु अनुशासन का पालन करते रहने की जरूरत होती है। हाँ प्रामाणिकता के लिए भी गुरु अनुशासनों का पालन करना पड़ता है। ऐसा न कर पाने वाले शिष्यों को खाली हाथ ही रहना पड़ता है। तब गुरुदीक्षा के समय अपनायी गयी प्रक्रिया मात्र कर्मकाण्ड भर रह जाती है और शिष्य खाली का खाली रह जाता है।

गुरुदीक्षा पुष्पित-पल्लवित कैसे करें:

दीक्षा द्वारा शिष्य को सद्गुरु से प्राप्त उनके तप, प्राण एवं पुण्य के अंश को सतत बढ़ाने एवं अपनी पात्रता को विकसित करने के लिए सद्गुरु के अपने अनुशासन होते हैं। शिष्य को सद्गुरु प्रदत्त उन संकल्पों के अनुरूप जीवन में नियमितता अपनानी पड़ती है। गुरु दीक्षा रूपी आध्यात्मिक कलम को पुष्पित, पल्लवित एवं प्रगाढ़ बनाने के लिए गुरु के दिव्य संकल्प खाद, पानी जैसा काम करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सद्गुरु द्वारा अपने तप, प्राण एवं पुण्य के सहारे शिष्य के अंतःकरण में बोये गये आध्यात्मिक बीज अंकुरित करने में कुछ गुरु संकल्प और भी है जो विशेष भूमिका निभाते हैं। इनमें क्रमशः हैं-

सिमरन: गुरु प्रदत्त मंत्र का नियमित निर्धारित संख्या में जप व सिमरन से दीक्षा पुष्पित-पल्लवित होती है। इसमें जप के समय गुरुमुख मंत्र के भावार्थ का इस भाव से जप व सुमिरन किया जाता है कि ‘‘हे प्रभु आप सर्वव्यापी-न्यायकारी हैं, हम आपके अनुशासन को

धारण करते हैं और आप हमारा आत्मकल्याण करें, हमारी समाज, राष्ट्र का भी कल्याण हो। हम सबके लिए सद्बुद्धि व उज्ज्वल भविष्य प्रदान करें। सिमरन का आध्यात्मिक प्रयोग ब्रह्मवेला में करना उत्तम कोटि का फल देने वाला होता है।

गुरु सत्ता का चिंतन व गुरु प्रेरित साहित्य-सत्संग

स्वाध्याय: गुरुदीक्षा फलित करने का दूसरा आधार है गुरु सत्ता का चिंतन व गुरु प्रेरित साहित्य-सत्संग द्वारा आत्म स्वाध्याय करना। गुरु निर्धारित आदर्श, गुरु अनुशासन व सिद्धांत, गुरुचिंतन, ईश चिंतन व गुरु प्रेरित साहित्य का स्वाध्याय आध्यात्मिक चेतना को विकसित करते व दीक्षा व गुरु के प्रति श्रद्धा जगाते हैं, साधक इसे गुरु अनुशासित चुम्बकत्व भरा प्रयोग कह सकते हैं। स्वाध्याय के समय यह अनुभूति करना चाहिए कि हमारे सद्गुरु ज्ञान स्वरूप हैं, उनके ज्ञान प्रसाद को हम अंतःकरण में आत्मसात कर रहे हैं, गुरु ज्ञान को जीवन का अंग बना रहे हैं। स्वाध्याय की यह नियमितता रात्रि सयन से 20 मिनट पूर्व करना चाहिए, इससे शिष्य को अपनी आध्यात्मिक पात्रता संवर्धित करने में मदद मिलती है तथा गुरु दीक्षा की ऊर्जा को गहराई देने में सहायता मिलती है।

संयम: यह दीक्षा फलित करने की तीसरी कसौटी है। उपासना, स्वाध्याय से जीवन में जागृत होने वाली गुरु चेतना-आत्म चेतना को सम्हालने व आत्मसात करने में संयम महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साधक की संयम साधना उसके व्यक्तित्व की पवित्रता को प्रखर व प्रभावशाली बनाकर गरिमा प्रदान करता है। इससे शिष्य का अपने शरीर, मनःक्षेत्र, समय आदि सम्पदा व भौतिक संसाधनों पर वर्चस्व स्थापित होने लगता है। शिष्य मनस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी बनता जाता है। संयम साधना से साधक का अंतःकरण, मनःक्षेत्र व आत्मबल प्रभावशाली बनता है। वास्तव में ईश्वर द्वारा प्राप्त आंतरिक साधन व वाह्य पुरुषार्थ से प्राप्त भौतिक संसाधनों को संचित करना, सही सदुपयोग करना संयम है।

 संयम के मुख्य रूप से चार पक्ष हैं

  • इंद्रिय संयम,
  • विचार संयम
  • समय संयम व
  • धन-साधन संयम

इसमें इंद्रिय, विचार व समय परमात्मा प्रदत्त संसाधन हैं। इन्हीं संसाधनों को व्यक्ति कुटेबो, दुष्ट प्रवत्तियों, व्यसनों व दुर्व्यसनों में गंवाकर दीन-हीन, दरिद्र बन जाता है। जबकि संयमित जीवन जीकर शिष्य आंतरिक व लोक व्यहार दोनों क्षेत्रें में प्रभावशाली बनता है। बस इतने अनुशासन का पालन करते ही जीवन में गुरु दीक्षा अंकुरित होने लगती है। गुरुकृपा, ईश्वरकृपा का मार्ग खुलता है। शिष्य नित्य एक-एक अंश ऊर्जा शक्ति से सम्पन्न होता जाता है और समय के एक-एक क्षण के सुनियोजन की दृष्टि पैदा होती है। इस प्रकार धन व श्रीसमृद्धि का जीवन में अम्बार लगने लगता है। जिसे सेवा में लगाने के भाव उठते हैं। सौभाग्य जगता है, घर-परिवार पर गुरु व ईश्वर कवच की छतरी हर क्षण कृपा बरसाती, मुशीबतों से बचाती है। इस प्रकार गुरुदीक्षा गुरु द्वारा शिष्य के अंतःकरण में अभिनव बीजारोपण बनकर पीढ़ियों तक शुभ दिव्य मार्ग प्रशस्त करता रहता है।

5 Comments

  1. Prabhash Kumar Shahi says:

    I want to take diksha from Guru jee
    I have already declared myself as disciple of Guru ji.

  2. Sarbani says:

    What is the process of Diksha

  3. Kartvya Nighojkar says:

    Namaskar
    Maine guruji se mantra diksha Li thi Ujjain main year 2000-01 main. Main Bsc second year ka student tha par kuch hi dino baad maine guru Mantra ka Jaap chod diya.Aur tab se main pareshan hu.

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